फल बेचने वाले युसुफ़ ख़ान कैसे बने दिलीप कुमार! 5 दशकों तक किया दर्शकों के दिलो पर राज..

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11 दिसबंर 1922 ये वो दिन था जब पेशावर में फलों के कारोबारी “मोहम्मद सरवर खान” के घर “यूसुफ़ सरवर खान” का जन्म हुआ। ये वही यूसुफ खान थे जो आगे चलकर ,दिलीप कुमार” के नाम से लोगों के दिलों पर 50 सालों तक हुकूमत चलाते रहे। जी हाँ, फलों के कारोबारी के घर जन्म लेने वाले यूसुफ़ खान की शुरुआती ज़िंदगी भी फलों को बेचने से शुरू हुई। उनके पिता मोहम्मद सरवर खान का फलों का अच्छा कारोबार था। इसलिए उन्हें भी इस कारोबार में पिताजी के साथ शरीक होना पड़ा। वक़्त के साथ युसुफ खान के सपने भी नए आयाम ले रहे थे।

एक दिन किसी बात पर यूसुफ़ खान का पिताजी से कहा-सुनी हो गयी। और फिर क्या था नौजवानी के गर्म खून ने यूसुफ खान की अंतरात्मा को ललकारा, इस ललकार को सुन कर यूसुफ खान पिताजी से वि:द्रोह करके अकेले निकल पड़े दुनिया नापने के लिए। यूसुफ के कदम पुणे जाकर रुके। अंग्रेजी पर पकड़ होने की वजह से उन्हें वहाँ ब्रिटिश आर्मी की कैंटीन में असिस्टेंट की नौकरी मिल गयी। अब पिताजी से विद्रोह करके घर छोड़ने वाले यूसुफ खान, अब आर्मी कैंटीन में सैंडविच बनाने का काम करने लगे। सैंडविच भी ऐसी जिसको खाने के लिए पूरी ब्रिटिश सेना दीवानी हुआ करती थी। धीरे-धीरे वक़्त बीत रहा था। और यूसुफ भी वक्त के साथ अपने कैंटीन में ढल रहे थे। एक दिन आर्मी कैंटीन में ही ब्रिटिश आर्मी का एक जलसा हुआ जिसमें यूसुफ खान ने भारत की आज़ादी के आंदोलन का समर्थन कर दिया। यूसुफ़ की बातें ब्रिटिश सैनिकों के दिलों को भेदती हुई निकल गयी। बस फिर क्या था यूसुफ़ खान को गिरफ्तार कर लिया गया साथ ही साथ नौकरी से भी निकाल दिया गया।

यूसुफ़ खान का सैंडविच बनाने का सफर खत्म हो चुका था। पिता से नाराज़गी की आग भी अब शांत हो चुकी थी। युसफ़ की ज़िन्दगी ने उनका एक इम्तिहान ले लिया था। थके हारे कदम फिर बंबई (मुंबई) की ओर मुड़ गए थे। बम्बई पहुंचकर युसफ़ खान ने तकिया बेचने का काम शुरू कर दिया लेकिन मुसीबतों ने उनका यहां भी पीछा नही छोड़ा और उनका यह धंधा भी फेल हो गया। अब बारी थी पिताजी से गिला शिकवा दूर करके घर वापस लौटने की। युसफ़ ने फिर से पिताजी के साथ मिलकर फलों का कारोबार शुरू कर दिया।

एक बार कारोबार के सिलसिले में ही युसुफ़ को दादर जाना पड़ा। युसफ़ दादर के चर्चगेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे। तब उन्हें वहां उनके जान पहचान वाले साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर मसानी मिल गए। डॉक्टर मसानी ‘बॉम्बे टॉकीज’ की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे। डॉक्टर साहब ने युसुफ़ को भी साथ चलने को कहा कुछ न नुकुर के बाद युसुफ़ भी मूवी स्टूडियो के आकर्षण से बच नही पाए और साथ चलने के लिए तैयार हो गए। ‘बॉम्बे टॉकिज’ उस जमाने का सबसे कामयाब फ़िल्म प्रोडक्शन हाउस था। और इस प्रोडक्शन हाउस की मालकिन थी देविका रानी। जो स्वंय भी एक मशहूर अभिनेत्री थीं। देविका रानी से युसुफ़ खान की मुलाकात के बाद एक नया इतिहास लिखने की शुरुआत हो चुकी थी।

पहली मुलाकात में ही देविका भांप चुकी थीं कि युसुफ़ खान आने वाले दिनों में हिंदी सिनेमा जगत का सितारा बनेगा जिसकी चमक से पूरा हिदुस्तान रोशन होगा। युसुफ़ को न तो अभिनय की समझ थी न ही फिल्मों की वो सिर्फ कुछ काम मांगने के लिए देविका से मिलने आये थे। देविका ने इस सवाल के साथ कि क्या तुम “एक्टर” बनोगे? 1250 रुपये की मासिक नौकरी युसुफ़ खान को ऑफर कर दी। युसुफ़ खान को यकीन नही हुआ उन्होंने 2-3 बार देविका से पूछ डाला कि ये 1250 रुपये वार्षिक हैं या मासिक? जब देविका ने स्पष्ट किया कि ये मासिक हैं तब जाकर युसुफ़ को यकीन हुआ। 1250 रुपये स्वीकार करते ही युसुफ़ खान की ज़िंदगी की एक नई दास्तान लिखनी शुरू कर चुकी थी। ये नई जिंदगी युसुफ़ का सब कुछ बदल देगी इसका अंदाज़ा अभी तक युसुफ़ को नही हो पाया था। युसुफ़ सुबह 10 से शाम 6 बजे तक बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो में शशिधर मुखर्जी, अशोक कुमार के सानिध्य में अभिनय की बारीकियां सीखने लगे। युसुफ़ खान की जिंदगी में एक और बड़ा बदलाव आने वाला था जिसको स्वीकार करने के लिए युसुफ़ खान तैयार नही थे। एक दिन देविका ने युसुफ़ खान को सुझाव दिया कि वो अपना नाम स्क्रीन नेम “दिलीप कुमार” रख लें। ये वही वक़्त था जब यूसुफ सरवर खान पहली बार दिलीप कुमार के नाम से जाने जाने वाले थे

युसुफ़ खान को यह सुझाव थोड़ा अजीब लगा लेकिन शशिधर मुखर्जी की सलाह के बाद उन्होंने यह नाम स्वीकार कर लिया। फल कारोबारी मोहम्मद सरवर खान का बेटा युसुफ़ खान अब अभिनेता दिलीप कुमार बन चुका था। बीता हुआ वक्त कई कहानियों का गवाह बन चुका था। अब बारी थी एक ऐसी उड़ान की जिसको आसमान की ऊंचाइयों से लेकर समंदर की गहराइयों को को मापना था। साल था 1944 का फ़िल्म का नाम था ‘ज्वार भाटा’ युसुफ़ से दिलीप कुमार बने नए नवेले अभिनेता की ये पहली फ़िल्म थी। सिनेमाघरों का पर्दा उठ गया था लेकिन कुर्सियां खाली रह गयी थी। फ़िल्म के निर्माताओं के साथ दिलीप कुमार की किस्मत भी इस फ़िल्म पर दांव पर थी। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है ये फ़िल्म बुरी तरह फ्लॉप हो गयी। उड़ान जो अभी शुरू भी नही हुई थी, खत्म होने को थी। पहली ही फ़िल्म दिलीप साहब की पिट चुकी थी।

आलोचकों ने दिलीप कुमार को घेर लिया था। उस वक़्त की हिंदी सिनेमा पर नज़र रखने वाली पत्रिका ‘फ़िल्म इंडिया’ के संपादक बाबूराव पटेल ने लिखा था ‘ऐसा लगता है कि फ़िल्म में किसी भूखे और मरियल दिखने वाले शख्स को हीरो बना दिया है।’ लेकिन कहते हैं न कि जहां चुनौतियां होती हैं, वहां कामयाबी भी छुपी रहती है। चारो तरफ आलोचनाओं के शिकार हो रहे दिलीप कुमार के अभिनय की एक शख्स ने परख किया था। उस शख्स का नाम था बीआर चोपड़ा जो उस समय लाहौर से प्रकाशित पत्रिका सिने होराल्ड के संपादक थे। उन्होंने फिल्म के बारे में लिखा था कि ‘दिलीप कुमार की डायलॉग डिलीवरी ऐसी है जो दूसरे अभिनेताओं से उनको अलग करती है’। बीआर चोपड़ा उस समय सिने होराल्ड के संपादक थे लेकिन आगे चलकर एक मशहूर फ़िल्मकार बने।

फ़िल्म भले ही न चली हो लेकिन दिलीप कुमार और उनके कुमार सरनेम का जादू चल गया था। दर्शकों के दिलों में दिलीप कुमार का चेहरा बस गया था। इस फ़िल्म ने उनके साम्राज्य की नींव रख दी थी ये वही साम्राज्य था जिसकी हुकूमत 5 दशक तक सिनेमा जगत पर चली। अब बारी थी अपने अभिनय का एक ऐसा जाल फेंकने की कि सारा हिंदुस्तान उस जाल में फंसकर दिलीप कुमार का दीवाना बन जाये। फ़िल्म आई मुगल-ए-आज़म इस फ़िल्म में अकबर की भूमिका में थे अभिनय की दुनिया के शहंशाह पृथ्वीराज कपूर और उनके सामने थे सलीम की भूमिका में दिलीप कुमार। इस फ़िल्म को हिंदुस्तान के सिनेमा जगत का आज भी मील का पत्थर माना जाता है।

इस फ़िल्म ने ऐसा तहलका मचाया की सलीम के किरदार में हर प्रेमी अपना अक्स ढूंढता फिर रहा था। मुगल-ए-आज़म में पृथ्वीराज कपूर की गंभीर आवाज़ का सामना दिलीप कुमार की विद्रोही आंखे कर रही थी। फ़िल्म के साथ दिलीप कुमार भी सुपर-डूपर हिट हो गए थे। वक़्त ने एक बार फिर करवट लिया और देश मे नए कल-कारखाने खुल रहे थ। इसी के साथ देश के लोगों की ज़िंदगी भी बदल रही थी। नई सुबह शुरू हो चुकी थी ‘नया दौर’ भी शुरू हो चुका था। मुगल-ए-आज़म का सलीम अब शंकर बन चुका था। ‘नया दौर’ फ़िल्म में इंसान और मशीन के द्वंद को दिखाया गया है। इस फ़िल्म में शंकर की भूमिका में धोती पहन टांगा चलाते साधारण से नौजवान में दर्शकों को अपना चेहरा दिखाई दिया। इस फ़िल्म का भी नशा लोगों को मदहोश कर चुका था।

इसके बाद दिलीप साहब की कई फिल्में आईं जिन्होंने हिंदुस्तान के फ़िल्म के इतिहास में एक ऐसी लकीर खींच दी है जिसको पार कर पाना आसान नही है। दिलीप कुमार ने कुल 60 फिल्मों में काम किया है। उनकी आखिरी फ़िल्म ‘किला’ (1998) थी।

दिलीप साहब की गोल्डन जुबली फिल्में
जुगनू, मेला, अंदाज, आन, दीदार, आजाद, मुगल-ए-आजम, कोहिनूर, गंगा-जमना, राम और श्याम, गोपी, क्रां’ति, विधाता, कर्मा और सौदागर

सिल्वर जुबली फिल्में
शहीद, नदिया के पार, आरजू, जोगन, अनोखा प्यार, शबनम, तराना, बाबुल, दाग, उड़न खटोला, इंसानियत, देवदास, मधुमती, यहूदी, पैगाम, लीडर, आदमी, सं’घर्ष।

शबनम, आजाद, कोहिनूर, लीडर, राम और श्याम, गोपी जैसी फिल्मों में दिलीप कुमार अपनी विनोदी भूमिका से लोगों की आंखों में आँसू बनकर छलक उठे। आन, आजाद, कोहिनूर, क्रांति में दिलीप कुमार के बग़ावती तेवरों ने नौजवानों में नया जोश भर दिया।

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